सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Thursday, May 6, 2010

प्रार्थी

धूमिल के बारे में बहुत से ऐसी बाते है जो लोगो को नहीं पता है। एक कवी होने के साथ ही साथ धूमिल एक लेखक, कहानीकार, और समाज सेवक भी थे। यही नहीं धूमिल एक कुशल अनुवादक भी थे और उन्होंने सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। आज मै आप सबके लिए धूमिल द्वारा अनूदित सुकांत भट्टाचार्य की एक कविता लेकर आया हूँ। एक बार फिर से उस युग पुरुष को नमन करके और इस विश्वास के साथ की आप लोगो को ये कविता पसंद आयेगी मै इस कविता को उनके चाहने वालो के बीच में रख रहा हूँ।

हे सूर्य ! जाड़े के सूर्य !
बर्फ सी ठंडी लम्बी रात तुम्हारी प्रतीक्षा में
हम रहते है
जैसे प्रतीक्षा कराती रहती है किसान की चंचल आँखे
धान कटने के रोमांचकारी दिनों की।

हे सूर्य तुम्हे तो पता है
हमारे पास गरम कपड़े की कितनी कमी है!
सारी रात घास फूस जलाकर,
एक टुकड़े कपड़े से कान ढंककर,
कितनी दिक्कतों से हम जाड़े को रोकते हैं!

सुबह की एक टुकड़ा धूप -
एक टुकड़े सोने से भी कीमती लगाती है
घर छोड़ हम इधर उधर जाते है-
एक टुकड़े धूप की प्यास से

हे सूर्य !
तुम हमारी सीलनदार भीगी कोठरी में
गर्मी और रोशनी देना,
और गर्मी देना-
रास्ते के बगल के उस नंगे लडके को

हे सूर्य !
तुम हमें गर्मी देना -
सुना है तुम एक जलते हुए अग्निपिण्ड हो,
तुमसे गर्मी पाकर
एक दिन शायद हम सब एक-एक जलते हुए अग्निपिण्ड में बदल जाएँ !
उसके बाद जब उस उत्पात में जल जाएगी हमारी जड़ता,
तब शायद गरम कपड़े से ढँक सकेंगे
रास्ते के बगल के उस नंगे लडके को
आज मगर हम तुम्हारे कृपण उत्पात के प्रार्थी है