सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Monday, February 15, 2010

अलानी

यह कविता धूमिल ने २३ जून १९६२ अपनी बेटी इंदु के स्मृति में लिखा थाअपनी बेटी के मृत्यु का समाचार सुनकर, व्याकुल पितामन अपनी व्यथा को शब्दों के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से कह देता है


जिंदगी एक खूंखार इच्छा है
जो अपने को खा जाती
और निरामिष होना
आदमी की पहली कमजोरी
क्योंकि हमें शांति से
जीना है
हम हर पैबंद को
नीचे ही
ढंक देना चाहते है
सत्य की एक शर्त भी होती है
मैं
इसी इच्छा
इसी कमजोरी
और इसी शर्त को जीता हुआ
मरी हुई लड़की का बाप हूँ
जिसकी किलकारियां
मेरी असंख्य अपराधी मुद्राओं पर
अंकित है
" जी लो पिता
जी लो यह जिंदगी
यह शांति !
यह सत्य !!
जी लो यह प्रतिस्पर्धा !!
अपनी संतानों से "
और मै चुपचाप सुनाता हूँ
बीमार अँधेरे में
आवाज का इस तरह
सिसक सिसक रोना ........
शताब्दियों की मौत का जश्न
मनाता हुआ
अर्धविक्षिप्त सूर्य
पीली डोरियों में बांधकर
नीली पतंग उड़ा रहा है
घूमती हुई धरती पर
मैं किसी आस्थागत संकल्प का
ध्वस्त शिलालेख
जीवित हूँ :
लिपियों का अंधापन
भगोड़ी आत्माओं को
ढूढता है
रीते भटकाव में
किन्तु मै किसी शब्द को
अर्थ नहीं दूंगा
सारी परिभाषाएं मेरा परिवेश है
उन्हें फिर भी
तोडूंगा नहीं
मेरी बच्ची








Sunday, February 14, 2010

गरीबी

गरीबी धूमिल की एक अप्रकाशित कविता है। यह एक छोटी मगर उतनी ही सशक्त कविता है। शायद ये कविता धूमिल के प्रारंभिक कवितावों में से एक है जो आज तक प्रकाशित नहीं हुई है।


एक खुली हुई किताब
जो
हर समझदार -
और
मुर्ख के हाथ में दे दी गई
कुछ उसे पढ़ते है
कुछ उसके चित्र देख
उलट
-पुलट रख देते
नीचे
- ' शो-केस ' के

Wednesday, February 10, 2010

धूमिल और उनका संधर्ष

आज से ३५ साल पहले, यानि १० फरवरी १९७५, को हिंदी साहित्य का एक महान सूरज सदा के लिए अस्त हो गया।आज के ही दिन काल चक्र ने खेवली से उसके महान सपूत और हिंदी साहित्य के संघर्षशील और जोझारू कवी सुदामा पाण्डेय "धूमिल" को छीन लिया। ३५ साल पहले धूमिल ने अपने गाँव को जिस हल में छोड़ा था वो अब भी उसी तरह है। कुछ भी नहीं बदला। वहा आज भी तो जंगल है जनतंत्र / भाषा और गूंगेपन के बीच कोई दूरी नहीं है। वहा सब कुछ सदाचार की तरह सपाट और ईमानदारी की तरह असफल हैधूमिल खेवली के जेहन में एक योद्धा के रूप में उभरे। जब तक वे जिन्दा रहे, खेवली में उनका संधर्ष चलता रहा। उन्होंने खेवली में अपने को एक किसान सुदामा पाण्डेय के रूप में ही बनाये रखा। गुस्सैल, संघर्षशील और जोझारू सुदामा पाण्डेय के रूप में। धूमिल अपने कविता के माध्यम से एक क्रांति लाना चाहते थे और इसके लिए वो हमेशा संघर्ष करते रहे। जिस प्रकार कविता की रक्षा के लिए कबीर करघे पर कपड़ा बुनते थे, उसे बेचकर अपना खर्च चलते थे, संत रविदास कविता की रक्षा के लिए जूता बनाकर, उसे बेचकर अपना खर्च चलते थे, उसी प्रकार धूमिल ने सिर पर लोहा ढोकर अपना खर्च चलते थे। अपनी कविता की रक्षा कर रहे धूमिल का कर्म कबीर और रविदास से ज्यादा कठिनाइयों से भरा है।
"लोकतंत्र के
इस अमानवीय संकट के समय
कवितावों
के जरिये
मै भारतीय
वामपंथ
के चरित्र को
भ्रष्ट
होने से बचा सकूँगा "
एक
मात्र इसी विचार
से
मै रचना करता हूँ अन्यथा यह इतना दुस्साध्य
और कष्टप्रद है कि कोई भी व्यक्ति
अकेला
होकर मरना पसंद करेगा
बनिस्पत
इसमे आकर
एक
सार्वजनिक और क्रमिक मौत पाने के।

धूमिल ने अपनी जिंदगी अपने शर्तो और अपने हिसाब से जीया। वो कहते है कि "जिन्दगी को जीने के लिए किन - किन चीजों की जरूरत पड़ती है, रोटी कपड़ा और मकान। यह बहुत दिनों से चला रहा है, इसके आलावा भी बहुत कुछ है। लेकिन सबसे बड़ी चीज जो है वह मानसिक खुराक है। उस मानसिक खुराक की कमी के कारणकुण्ठा होतीहै। निराशा, हताशा और छटपटाहट होती है। ये जितने भी चालू शब्द है, सब उसी के विभिन्न रूप है। "
धूमिल कई मामलों में सबसे अलग थे। उनकी सोचने, उनकी बोलने और उनके लिखने का तरीका एकदम भिन्न था। वो अपने अधिकारों और उनकी सीमाओं से भली भात परिचित थे। लेकिन ज्याद पढ़ पाने का मलाल थाउन्हें, अपने डायरी में धूमिल ने जिक्र किया है - मैंने अपने यहाँ कि धांधली को बहुत गहरे जाकर महसूस किया है।मेरे जैसा आदमी, जो ईमानदारी तथा देश निष्ठा का एकतरफा दावा करता है, जब यहाँ होने वाली वैधानिक धांधलियों को देखकर भी चुप रह जाता है, तो अचानक कई तरह के सवाल मन में पैदा होते है। क्या यह मेरी कमजोरी है कि मै उन बेईमान लोगों का खुलकर विरोध नहीं कर पाता? आखिर यह क्यों है ? अपनी प्राथमिक योग्यताओं के प्रमाणपत्रों कि कमी मुझे इस वक्त बुरी तरह खलती है। इतनी कम योग्यता वाले आदमी को जो सुविधा यह सरकारी नौकरी दे रही है वह शायद और नहीं मिलेगी (जैसा कि बेकारी का दिन है ) और यही वजह हैकि मै बहार कर दिए जाने के भय से चुप रह जाना अच्छा समझता हूँ।
वे बड़े ही बेबाकी के साथ अपनी बात कह देते थे और फिर उन बातों को सुनकर ऐसा लगता है कि ये सब बातें कही कही एक आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी बात है। हम जिन बातों को स्वीकार करने में हिचकिचाते है, डरते है, धूमिल ने उन सब बातों को स्वीकार। धूमिल ने भाषा, धर्म और संस्कृति जैसे शब्दों पर, उनके समसामयिकमुहावरों पर पूरी उत्तेजना से बात करते हुए शत प्रतिशत सुविधाभोगी लोगो को बड़े गहरे जाकर देखा था।
धूमिल जब अस्पताल में ब्रेन ट्यूमर से लड़ रहे थे तब उन्होंने अपनी अंतिम कविता लिखी। उस वक्त उनकी नजरएकदम कमजोर हो चुकी थी और सिर में भयंकर दर्द था। जिंदगी भर दूसरो कि लड़ाई लड़ता हुआ एक संघर्षशील और जोझारू कवी १० फरवरी १९७५ को अपने जिंदगी कि लड़ाई हार गया।

शब्द किस तरह / कविता बनते हैं
इसे
देखो
अक्षरों
के बीच गिरे हुए आदमी को पढो
क्या
तुमने सुना
कि
यह लोहे कि आवाज है या
मिट्टी
में गिरे हुए खून का रंग
लोहे
का स्वाद
लोहार
से मत पूछो
उस
घोड़े से पूछो
जिसके
मुंह में लगाम है।

ये धूमिल कि अंतिम कविता है।

Thursday, February 4, 2010

आतिश के आनर सी वह लड़की

धूमिल की ये कविता सही मायने में महिला शक्ति को पहचानते हुए उन्हें प्रेरीर करता है कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़े

(कुमारी रोशन आरा बेगम के लिए - जिसने खुद ) को आततायी टैंक के नीचे बम के साथ डाल लिया )

"आजाद रहना हर वक्त एक नया अनुभव है "
वह प्यारी लड़की
अपने देश वासियों के खून में हमलावर दांतों की रपट पढ़ना
और उसके हिज्जे के खिलाफ कदम - - कदम
मौत के फैसले की ओर बढ़ना
छाती पर बांध कर बम
कम से कम, कहें जिन्हें कहना
यह अद्भुत साहस था बीसवीं
शताब्दी के आठवें दशक के तीसरे महीने में
लेकिन मै सिर्फ यह कहना चाहूँगा-
यह एक भोली जरूरत थी
औसतन गलत जिंदगी और
सही मौत चुनने का सवाल था
इसे अगर कविता की भाषा में कहूँ
यह जंगल के खिलाफ
जनतंत्र का मलाल था
बाबुल के देश का चुटिहल धड़कता हुआ
टुकड़ा था सीने में
और फैसले का वक्त था
एक हाथ जो नाजुक जरूर था
लेकिन बेहद सख्त था
आजाद अनुभवों की लकीर को
पूरब की ओर आगे तक
खींच रहा था
और लोग चकित थे देख कर कि एक नंगा गुलाब
किस तरह लोहे के पहाड़ को अपनी
मुट्ठी में भीच रहा था
ठीक इसी तरह होता है
जवानी जब फैसले लेती है
गुस्सा जब भी सही जनून से उभरता है
हम साहस के एक नए तेवर से परिचित होते है
तब हमें आग के लिए
दूसरा नाम नहीं खोजना पड़ता है
मुमकिन था वह आपने देशवासियों की गरीबी से
साढ़े तीन हाथ अलग हटकर
एक लड़की अपने प्रेमी का सिर छाती पर रखकर
सो रहती देह के अँधेरे में
अपनी समझ और अपने सपनों के बीच
मै उसे कुछ भी कहता सिर्फ कविता का दरवाजा
उसके लिए बंद रहता लेकिन क्या समय भी उसे
यूँ ही छोड़ देता ?
वह उसके चुम्बन के साथ
बारूद से जले हुए गोश्त का
एक सडा हुआ टुकड़ा जोड़ देता
और हवा में टांग देता उसके लिए
एक असंसदीय शब्द नीच
मुमकिन यह भी था थोड़ी सी मेंहदी और
एक अदद ओढ़नी का लोभ
लाल तिकोने के खिलाफ बोलता जेहाद
और अपने वैनिटी बैग में छोड़कर
बच्चों कि एक लम्बी फेहरिस्त
एक दिन चुपचाप कब्र में सो जाती
हवा कि इंकलाबी औलाद
लेकिन ऐसा हुआ नहीं
प्यारी भाभियों
नटखट बहिनों
सिंगार दान को छुट्टी दे दो
आइने से कहो कुछ देर अपना अकेलापन घूरता रहे
कंघी के झडे हुए बालों की याद में गुनगुनाने दो
रिबन को फ़ेंक दो बाडिज अलगनी पर
यह चोटी करने का वक्त नहीं और बाजार का
बालों को ऐंठकर जूड़ा बांध लो
और सब के सब मेरे पास आओ
देखो, मै एक नयी और तजा खबर के साथ
घर कि दहलीज पर खड़ा हूँ
ओह ! जैसा मैनें पहले कहा है -
बीस सेवों कि मिठास से भरा हुआ योवन
जब भी फटता है तो सिर्फ टैंक टूटता है
बल्कि खून के छींटे जहाँ जहाँ पड़ते है
बंजर और परती पर आजादी के कल्ले फूटते है
और प्यारी लड़की !
कल तू जहाँ आतिश के अनार कि तरह फूट कर
बिखर गयी है ठीक वहीँ से हम
आजादी की वर्ष गांठ का जश्न शुरू करते है

Tuesday, February 2, 2010


धूमिल पर ये आरोप लगता रहा है कि वे महिला विरोधी कवि है, और धूमिल इस बात को अपने कवितावों के माध्यम से हमेशा गलत साबित किया है। अपनी कवितावों में धूमिल में महिलाओं को एक अलग और सशक्त स्थान दिया है, फिर चाहे वो "आतीश के अनार सी वह लड़की " हो या फिर "घर में वापसी "। अपनी कवितावों में माँ, बेटी और पत्नी को जिस तरह से उन्होंने प्रस्तुत किया है वो अपने आप में कई सवालों का जवाब देती है। एक तरफ जहा वो बेटी की आँखों की तुलना मंदिर में दीवट पर जलते हुए घी के दीए से करते है, वही पत्नी की आँखों को ओ बस आँख नहीं मानते। उनके लिए ओ उस हाथ की तरह है जो उन्हें थामे हुए है। घर में वापसी धूमिल की एक ऐसी ही कविता है। उम्मीद करता हूँ की आप सब लोगो को धूमिल की ये कविता जरूर पसंद आयेगी।



घर में वापसी

मेरे घर में पांच जोड़ी आँखे है
माँ की आँखें पड़ाव से पहले ही
तीर्थ यात्रा की बस के/ दो पंचर पहिये है
पिता की आँखें
लोहसाय की ठंडी सलाखे है
बेटी की
आँखें मंदिर में दीवट पर
जलते घी के/ दीए है
पत्नी की
आँखें आँखें नहीं
हाथ है जो मुझे थामे हुए है
वैसे हम स्वजन है, करीब है
बीच के दीवार के दोनों ओर
क्योकि हम पेशेवर गरीब है
रिश्ते है लेकिन खुलते नहीं है
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पते
कि हम उससे एक ताली बनवाते
और भाषा के भुन्नासी ताले को खोलते
रिश्तो को सोचते हुए/ आपस में प्यार से बोलते
कहते ये पिता है/ यह प्यारी माँ है/ यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग/ करते- तू मेरी
हम बिस्तर नहीं............. मेरी हमसफर है।